Maitri Prayers
(in Maitri Language with audio)
Vivekasheel (Discerning/who can judge right and wrong) human beings must feel ashamed of their acts of hatred. On the one hand, they speak the language of Maitri, kindness, compassion and love, and on the other they fulfill their selfish motives by killing Abodh (who do not understand much), innocent and Agyani (having no Dharma Knowledge) living beings. Is it right? Is there any feeling of Maitriful kindness, compassion, sensibility, love and peace in such actions? Isn't it absolutely the attitude of an animal and a Rakshasha (Devil/Demon)? What distinction have we kept between us humans and those violent animals by indulging in such non-Maitriful animal-like behaviour. Do try to know, even just for a moment, what the reality is. In this way, we actually are destroying our own identity, Maan-Maryada (dignity and binding ethics) and our human civilization. The reality is that a human being is not an Agyani (having no Dharma Knowledge) like those violent animals at all. Why should then we do the evil Karmas while being equipped with such a knowledge? We think and tell others that no one should impinge upon our right to eat. But when did we ever think of the rights of those animals, as to what their rights are. In fact, all other living beings have as equal right to live as we do. There is no difference. Only difference lies in the behaviour, attributes, nature and appearance which they have got in accordance with their Karma. Take into consideration for a moment the nature and behaviour of a lion. What type it possesses. Everyone in the world does know the nature of a lion. It certainly does not have the Gyan that it should not kill others, that it should not eat blood and meat. It's not possible because it is in its nature and attributes which make it kill others mercilessly and feed on the blood and meat. It can not survive without meat even. This behaviour of the lion has been gained by it as a result of its Karma. But there is earth and sky difference between the animals and humans due to the Karma fruits received by humans. There can't be a comparison between Vivekasheel humans and Agyani animals. Never do the humans have that kind of nature and attributes that s/he would have to die if the flesh and blood were not consumed. Does our survival depend on those animals? We humans do not have any right to kill others and torment them. We humans rather survive by feeding on pure Shakahari (food taken from plants and trees) food like vegetables, grains and fruits which Gurus have provided by creating them. We can survive by consuming them, not by taking away life of others. Even while having attained a human birth, if we adopt attributes and nature of animals in such ways as an Agyani, then we don't even get a birth as an animal being but instead get a life in hell. In this way, we are destroying this priceless life wastefully. Dharma, Niti (Codes/Tenets) and Shashan (Regime/Order) of Parmatma Bhagwan Gurus are not such that would harm others. They are only to emancipate all living beings through 'Maitri Feeling for All' by giving equal treatment to everyone.
Those who think that by doing Paap (Sin) one accumulates Dharma, those who think that their wishes are granted or obstacles get removed if they sacrifice animals, those who think offering blood and meat pleases Devi-Devatas, should introspect that if those were real Bhagwans, would they want their own child-like animals be sacrificed? They never want that the innocent living beings whom They have created Themseves should ever be killed. Would the survival of the world be possible, if They were of such opposite nature. Would there be any possibility of the existence of kindness, compassion and love? In this way, we humans are committing a grave crime. How can anyone be termed as Bhagwan or Devi-Devata if s/he wants the blood of the living beings. They can not be Bhagwan, and are not even bringing any benefits for us. This is absolutely a Rakshasha's (Demon/Devil's) nature, then how can they do our Kalyan (Dharma Benefit)? Everyone knows the nature of a Rakshasha. The reality is humans kill other living beings to meet their own selfish motives alone. The Chetansheel (Conscious) human beings punish an Abodh (who do not understand much) living being, who happens to be happily lost in the feeling of surrender, causing his/her death. Why do humans, who are considered as one of the best living beings, take diets which harm others and self. Take Shuddha diet renouncing the diets which harm others and self, and see and know all other living beings equal to yourself. If someone indulges in such harmful ways, it is absolutely not in favor of him/her. It is an act of complete destruction. Not only it causes self destruction, but this sin also leads to destruction of our own children. Eventually, Atma gets stuck in Narkiya Kunda (Hell) from where there is no Mukti ever. The Atmas who accept such sacrifices are Pret-Atmas and Rakshasha who can never benefit anyone, are there only for a very short time. Those who try to achieve something by pleasing them, get the birth in the same Juni (Species), and they in the end have no other options left but suffer.
विवेकशील प्राणी कहलाने वाले मनुष्य को जरूर अपने घृणित कार्यों पर लज्जित होना ही चाहिए। एक तरफ मैत्री, दया, करुणा और प्रेम की भाषा बोलने वाले, दूसरी तरफ उनके द्वारा उन अबोध, निर्दोष और अज्ञानी प्राणीयों की हत्या करके अपनी स्वार्थ पूर्ति करना क्या उचित है? क्या वहाँ सर्व मैत्री भावपूर्ण दया, करुणा, समझदारी, प्रेम ओर शान्ति का भाव है? क्या यह पूर्ण रूप में एक दानव (जनावर) व राक्षस का क्रूर स्वभाव नहीं है? ऐसे अमैत्री पूर्ण दानवीय आचरण से हमारे और हिंसात्मक उन जीव जन्तुओं के बीच में क्या फरक रह गया? एक क्षण के लिए ही सही पर सब इस पर सोचो तो, वास्तविकता क्या है? ऐसे हम अपनी पहचान, मान मर्यादा ओर मानविय सभ्यता को नष्ट कर रहें हैं। वास्तव में मनुष्य उन हिंसात्मक जीव जन्तु जैसा अज्ञानी तो बिल्कुल नहीं हैं। ऐसे जान-बुझकर भी क्यों हम दुष्ट कर्म कर रहे हैं तब? हम सोचते हैं और कहते हैं किसी मनुष्य को हमारे खाना पाने के अधिकार का हनन नहीं करना चाहिए। पर हमने कब उक्त प्राणीयों के बारे में सोचा कि उन प्राणीयों के हक ओर अधिकार क्या हैं? वास्तव में इस संसार में जितना हमारा बचे रहने का अधिकार है उतना ही हक ओर अधिकार सम्पूर्ण प्राणीयों का भी है। कोई फरक नहीं है। मात्र अपने कर्म अनुसार प्राप्त हुए व्यवहार, गुण, स्वभाव और स्वरूप में मात्र भिन्नता हैं। एक क्षण के लिए ऐसे दानवों में (पशु प्राणीयों में) हिंसात्मक जीवों में एक बाघ का स्वभाव ओर व्यवहार को लेकर देखो। क्या कैसा है? अवश्य ही संसार में प्रत्येक मनुष्य को पता ही है कि बाघ का स्वभाव कैसा होता है। उस में पक्का ही ऐसे किस्म का ज्ञान नहीं हैं कि ओरों की हत्या नहीं करनी चाहिए, रक्त और मांस नहीं खाना चाहिए। होंगी भी कैसे, क्योंकि वह तो उसका स्वभाव ओर गुण है कि ओरों की क्रुरता पूर्वक हत्या करके रक्त ओर मास खाना है। वह बिना मांस के बच भी नहीं सकता। बाघ का वह कर्म अनुसार पाया गया एक फल है। पर हम मानवों द्वारा प्राप्त किए कर्म के फल वैसे ना होने से आकाश और जमीन के बीच जितना अन्तर है उतना ही हमारे और दानवों के बीच में फरक है। कहाँ विवेकशिल मनुष्य और कहाँ अज्ञानी दानव (पशुप्राणी)। मनुष्य के वैसे दानविय गुण और स्वभाव तो पक्का नहीं होते कि रक्त और मांस न खाए तो वह बच नहीं सकता। क्या हमारे प्राण उन प्राणीयों पर आधारित हैं? संसार में हम मानवों को कोई अधिकार नहीं है कि ओरों की हत्या करे ओर प्राणीयों को दुःख दें। हम पुण्यवान मनुष्यों के प्राण तो शुद्ध शाकाहारी सेवन करने में है। जैसे सागपात, अन्न ओर फलफूल हैं जिनको गुरूओं ने सृष्टि करके दिया है। हम इनको खाकर जिन्दा रह सकते हैं। ओरों के प्राण लेकर नहीं। यदि हम मानव होकर भी ऐसे इस जन्म में अज्ञानी बनकर दानविय गुण ओर स्वभाव जैसे आचरण लेकर व्यवहार करते हैं तो मृत्यु पश्चात हम दानवों में नहीं नारकीय जीवन प्राप्त करते हैं। ऐसे हम अपने अमूल्य जीवन को व्यर्थ ही नष्ट कर रहें हैं। परमात्मा भगवान गुरूओं के धर्म नीति ओर शासन यह नहीं हैं कि ओरों को असर पहुंचाऐं। वे तो केवल मात्र सभी प्राणीयो से समान व्यवहार करके सर्व मैत्री भाव द्वारा सभी का उद्धार करना है।
'पाप करने से धर्म होता है' ऐसी मान्यता रखने वाले जैसे कि बली चढाकर मनोकामना पूरी होती है ओर विघ्नबाधाऐं हटती हैं, रक्त और मांस चढाने से देवी-देवता खुश होते हैं और धर्म पूरा होता है ऐसी मान्यता रखने वाले, क्या वे वास्तव में ही यदि भगवान हों तो क्या अपने ही पुत्र समान निर्दोष प्राणीयों की बलि चाहेंगे? खुद ही सृष्टि सिद्ध करके दिए प्राणीयों की हत्या वे कभी भी नहीं चाहते। यदि वे इसके विपरित होते तो क्या यह संसार रह पाता? क्या वहाँ दया, करुणा, प्रेम रहता? ऐसे हम मनुष्य घोर अपराध कर रहें हैं। यदि भगवान प्राणीयों का रक्त चाहते हैं तो वे कैसे भगवान या देवी देवता हो सकते हैं? भगवान हो ही नहीं सकते ओर हमारे हित कार्य करने के पक्ष में भी नहीं होते। यह पूर्ण रूप से राक्षस स्वभाव है फिर कैसे हमारा कल्याण कर सकते हैं? सब को पता है राक्षस का स्वभाव कैसा होता है। सत्य यह है कि मनुष्य अपने स्वार्थ भाव की पूर्ती के निमित्त मात्र प्राणीयों की हत्या करता है। एक अबोध प्राणी जो प्राण के निमित्त हंसते हंसते समर्पण भाव में विलीन होता है वे चेतनशील मानव उसे मृत्यु के रूप में दण्डित करते हैं। अपने और ओरों का अनिष्ट करने वाले आहार सर्वश्रेष्ठ प्राणी मे गिने जाने वाले मनुष्य क्यों करते हैं? अपने ओर ओरों का अनिष्ट करने वाले आहार त्याग कर शुद्ध आहार करो ओर सर्व प्राणीयों को अपनी तरह देखो ओर बोध करो। यदि कोई ऐसे अनिष्ट कार्य करता है तो बिल्कुल ही अपने हित में नहीं है। यह पूर्ण विनाश कार्य है। स्वयं तो नष्ट हुए ही हुए इस पाप के कारण अपने सगी संतानें भी नष्ट होती जाती हैं। अन्ततः सदा आत्मा नारकीय कुण्ड में फस कर रह जाती है जहाँ से कभी भी मुक्ति नहीं है। ऐसे प्राणीयों की बलि स्वीकार करने वाली आत्माऐं तो मात्र प्रेत आत्माऐं ओर राक्षस होती हैं जो किसी का भला नहीं करती। क्षणिक समय मात्र होती हैं। इनको मानकर अपना कार्य सिद्ध बनाने व कोशिश करने वाले मानव अन्ततः इसी प्रेत आत्मा ओर राक्षस की जुनि पाकर उनके पास अन्त में दुःख भोगने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं होता।
विवेकशील प्राणी भन्ने मनुस्यलाई पक्कै पनि आफ्नो घृणित कार्यहरूमा लाज एवम् संकोच हुनु पर्ने हो। जहाँ मैत्री, दया, करुणा र प्रेमको भाषा बोल्नेहरूले ति अवोध, निर्दोष र अज्ञानी प्राणीको हत्या गरेर आफ्नो स्वार्थ पूर्ति गर्नु उचित छ ? के त्यहाँ सर्व मैत्री भावपूर्ण दया, करुणा, समझदारी, प्रेम र शान्तिको भाव छ ? के यो पूर्ण रूपमा एक दानव (जनावर) वा राक्षसको क्रुरता स्वभाव होइन र ? यस्तो अमैत्री पूर्ण दानवीय आचरणले हामी र हिंसात्मक ति जीव जन्तु विचमा के फरक रह्यो र ? एक क्षण भएपनि सबैले यसलाई सोच्नुस त, वास्तविकता के रहेछ ? यसरी हामीले आफ्नै पहिचान, मान मर्यादा र मानविय सभ्यतालाई नष्ट गरी रहेका छौं। वास्तवमा मनुष्य ति हिंसात्मक जीव जन्तु जस्तो अज्ञानी त पक्कै पनि होइन। यसरी जानी-बुझीकन पनि किन हामी दुष्ट कर्म गरि रहेका छौं त ? सोच्दा वा भन्दा हुन् कोही मनुष्यले हाम्रो खाना पाउने अधिकारको हनन हुँदैन। तर हामीले कहिले उक्त प्राणीहरूको बारेमा सोचेका छौं ? ति प्राणीहरूको हक र अधिकार के हो भनेर ? वास्तवमा यस संसारमा हाम्रो जत्ति बाँच्ने अधिकार छ। त्यत्तिकै हक र अधिकार सम्पूर्ण प्राणीको पनि छ। केही फरक छैन। मात्र आफ्नो कर्म अनुसारले प्राप्त भएको व्यवहार, गुण, स्वभाव र स्वरूपमा मात्र फरक छ। एकै छिन त्यस्ता दानव मध्यको हिंसात्मक जीवमा एक बाँधको स्वभाव र व्यवहारलाई लिएर हेरौं। के कस्तो छ ? अवश्य नै संसारमा प्रत्येक मनुष्यलाई थाहाँ नै छ। बाँघको स्वभाव कस्तो हुनँछ भनेर। पक्कै पनि उसमा त्यस किसिमको ज्ञान छैन अरुको हत्या गर्नु हुँदैन भनेर, रगत र मासु खानु हुँदैन भन्ने कुरा। होस पनि कसरी, किनकी त्यो त उसको स्वभाव र गुण हो। जुन अरुको क्रुरता पूर्वक हत्या गरेर रगत र मासु खानुमा छ। ऊ मासु विना बाँच्न पनि सक्दैन। बाँघको त्यो कर्म अनुसार पाएको एक फल हो। तर हामी मानवले प्राप्त गरेको कर्मको फल त्यस्तो नभएर आकाश र जमीन बिचमा जत्ति अन्तर छ। त्यत्तिकै रूपमा हामी र दानव बिचमा फरक छ। कहाँको विवेकशिल मनुष्य र कहाँको अज्ञानी दानव। मनुष्यको त्यस्तो दानविय गुण र स्वभाव पक्कै पनि होइन। रगत र मासु नखाइ बाच्न नसक्ने। के हाम्रो प्राण ति प्राणीहरूमा आधारित छ त ? संसारमा हामी मानवलाई कुनै अधिकार छैन अरुको हत्या गर्ने र प्राणीलाई दुःख दिने। हामी पुण्यवान मनुष्यहरूको प्राण ति शुद्ध शाकाहारी सेवन गर्नुमा छ। जस्तै सागपात, अन्न र फलफूल हुन्। जुन गुरूहरूले सृष्टि गरेर दिनु भएको छ। हामी यसैलाई खाएर बँच्न सक्छौं। अरुको प्राण लिएर होइन। हामी मानव भएर पनि यसरी यही जन्ममा अज्ञानता बनेर दानविय गुण र स्वभाव झैं आचरण लिएर व्यवहार गर्छौं भने जन् मृत्यु पश्चात त हामी दानवमा होइन कि नारकीय जीवन प्राप्त गर्नेछ। यसरी हामीले आफ्नो अमूल्य जीवनलाई व्यर्थै वर्बाद गरि रहेका छौं। परमात्मा भगवान गुरूहरूको धर्म नीति र शासन त्यो होइन। अरुलाई असर पुर्याउने। केवल मात्र सर्व प्राणीलाई समान व्यवहार गरेर, सर्व मैत्री भावद्वारा सवैको उद्धार गर्ने हो।
'पाप गरेर धर्म हुन्छ' भन्ने मान्यता राख्नेहरू, जस्तो कि बली चढाएर मनोकामना पूरा हुन्छ र विघ्नबाधाहरू हट्न भन्नेहरू, रगत र मासु चढाएर देवी-देउता खुसी हुन्छन् र धर्म पूरा हुन्छ भन्ने मान्यता राख्नेहरू, के त्याहाँ वास्तवमै यदि भगवान भई दिएको भए देखि आफ्नै पुत्र समान निर्दोश प्राणीहरूको बलि चाहनु हुन्छ ? आफैले सृष्टि सिद्ध गराइ दिनु भएको प्राणीहरूको हत्या उहाँहरूले कहिल्यै पनि चाहनु हुन्न। यदि उहाँहरू यसको विपरित हुनु भएको भए के यो संसार रहन्थ्यो ? के त्यहाँ दया, करुणा, माया भन्ने रहन्थ्यो ? यसरी हामी मनुष्यले घोर अपराध गर्दै छौं। यदि भगवानले प्राणीको रगत चाहन्छ भने त्यो कसरी भगवान वा देवी देऊता हुन सक्छ ? भगवान हुनै सक्दैन र हाम्रो हित कार्य गर्ने पक्षमा पनि हुँदैन। यो पूर्ण रूपमा राक्षस स्वभाव हो र कसरी हाम्रो कल्याण गर्न सक्छ ? सबैलाई थाहाँ छ राक्षसको स्वभाव कस्तो हुन्छ भनेर। सत्यता यो हो कि मनुष्यहरू आफ्नो स्वार्थ भावपूर्तिको निमित्त मात्र प्राणीको हत्या गर्छन्। एक अवोध प्राणी प्राणको निमित्त हाँसी-हाँसी समर्पण भावमा विलीन हुँदै मृत्युको रूपमा ति चेतनशिल मानवले दण्ड दिन्छन्। आफू र अरुको अनिष्ट गर्ने आहार सर्वश्रेष्ठ प्राणीमा गनिने मनुष्यले किन गर्दैछन् ? आफू र अरूको अनिष्ट गर्ने आहारहरू त्यागी सुद्ध आहार गर्नु र सर्व प्राणीहरूलाई आफू सरह हेरौं र बोध गरौं। यदि कसैले यसरी यस्ता अनिष्ट कार्यहरू गर्दैछ भने त्यो विलकुलै आफ्नो हितमा छैन। यो पूर्न विनाश कार्य हो। अफू त नष्ट भयो-भयो यसको पापले गर्दा आफ्नो साखा-सन्तानहरूपनि नष्ट हुँदै जानेछ। अन्ततः सदा आत्माले नारकीय कुण्डमा विताउनु पर्ने हुन्छ। जहाँबाट कहिल्यै मुक्त छैन। यसरी प्राणीको बलि स्वीकार्ने आत्माहरू त मात्र प्रेत आत्माहरू र राक्षसहरू हुन्। जसले कसैलाई राम्रो गर्दैन। क्षणिकको लागी मात्र हुँनेछ। यस्तालाई मानेर आफ्नो कार्य सिद्ध बनाउन खोज्ने मानवहरू अन्ततः यसै प्रेत आत्मा र राक्षसको जुनि पाएर अनन्त दुःख भोग्नु सिवाय अरु विकल्प कुनै छैन।