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Maitri Sandesh, Patharkot, 2013

Nepali

धर्म संघ
बोधि श्रवण गुरु संघाय
नमो मैत्री सर्व धर्म संघाय

महा मैत्रीय मार्गको अनुसरण गरि मार्ग गुरु, गुरु मार्ग हुँदै भगवान मार्ग सम्मको असंख्य भाव दर्शनमा लिनभई समस्त प्राणि लोकले महा बोधको अमृतपान गरुन एवं महा मैत्रीय गुरु र मार्गको लोकमा सदा आशिस रही रहुन्।

ताराहरू असंख्य देखिएता पनि आकास एउटै भए जस्तै संसारमा देखिएको समस्त धर्म र मार्गको मूल स्त्रोत अन्तत: एउटै हो। त्यो हो बोध। लोकको विभिन्न काल खण्डमा बोध भएको वा बोध प्राप्त भएको गुरुहरूबाट समय अनुकुल लोक कल्याणको निमित्त भनि प्रतिपादित मार्गहरु वर्तमान क्षणमा विभिन्न धर्म दर्शन मार्ग र संस्कृतिको रंगमा रंगिएको छ। धर्म र मार्गको नाममा झन् झन् सत्य तत्वबाट विमुख हुँदै सहि गलत पाप धर्म गुरु र मार्ग छुट्याउन नसकेर हो वा नचाहेर अनायसै मनुष्यहरू अन्धकारमय तत्व-हिन दिशा तिर देखि रहेको छु।

पूर्ववत एक भाव गरि बोध प्राप्त गर्नु भएको बुद्ध केवल मार्ग इंगित गराउनु हुने मार्ग गुरु हुन्। तथापी वर्तमान क्षणमा पूर्ववत बुद्धको गुरु छैन भन्ने भ्रम लोकमा भएता पनि यस मार्ग गुरुको गुरु को हुनुहुन्छ भन्ने प्रश्न र वास्तविकता यथेष्ट छदैछ। आस्तित्वमा आशिन अनेकौं भावहरू गुरुहरू मार्गहरू अझै लोकमा रहस्य नै छ। समयको अत्यान्तिक अनुरुप गुरु मार्ग दर्शन गराइरहेको छु।

समस्त गुरुहरुको एउटै मार्ग भएता पनि आ-आफ्नो शासन र स्थान हुने गर्दछ तथा शासन अनुरुप फल प्राप्ति हुने गर्दछ। गुरु मार्ग त्यो मार्ग हो जुन मार्गमा समस्त लोक प्राणि र वनस्पतिले मैत्री मार्ग अनुसरण गरि मुक्ति र मोक्ष प्राप्ति गर्दछ। मानव लोकमा मनुष्यहरु स्वतन्त्र छन् धर्मको मार्गमा लिन हौस् या पाप चर्यमा जीवन व्यतित गरोस्। यस लोकको अर्थ नै धर्म र पाप छुट्याउनु हो। तर मनुस्य आफुले गरेको राम्रो नराम्रो कर्म अनुरुप फल सुनिश्चित छ। युगौ पछि लोकमा गुरु मार्गको अवतरण भएको छ। समजदारी अहिंसा दया करुणा प्रेम तथा मैत्री भावको रसले व्याकुल लोकलाई तृप्त गरे मैत्रीको शासन स्थापित गराउनको निमित्त।

तर सर्वज्ञानको भावना राख्ने मनुष्यले अहंकारवस वर्तमान यस गुरु क्षणको सद उपयोग गर्न सकेन। एक क्षण आत्मालाई साक्षी राखी मानवकुलले भावना गरोस गुरुको यो तपस चार्य किन ? अन्तत केवल लोक प्राणी र वनस्पतिको मुक्ति र मोक्षको निमित्त तथापी होला। कसैले गुरुबाट अन्य संसारिक वस्तुको लाभ हुन्छ भन्ने आसय बोकेको तर गुरुले दिन सक्ने मात्र धर्म मार्ग मुक्ति र मोक्ष हो। तर विडम्वना भनौया काल अदित देखि संक्रमित मनुस्यको मनोवृत्ति बदलामा गुरुलाई दीइन्छ आरोप अविश्वास हिंसा वाधा अड्चना।

यस मानव कुलको समाज र व्यवस्था लगायत समस्त लोकलाई धर्म र मार्गको आवश्यकता पर्दछ, नाकी धर्मलाई। मनुस्यहरुले यो सत्य वोध गरुन् एवं मैत्री भाव तत्वको खोजमा जीवन यापन गरुन्। सत्य मार्गको लोक व्यापी दर्शन गराउनको निमित्त आउने दिनहरु गुरु भ्रमण पनि हुनेनै छ।

सर्व मैत्री मंगलम
अस्तु तथास्तु।।

Hindi

महा सम्बोधी धर्म संघ गुरु ज्यू द्वारा मिति २०६९ साल चैत्र २७ को पत्थरकोट-१, सर्लाही मे दिया गया मैत्री सन्देश। (अप्रैल 9, 2013)

धर्म संघ
बोधी श्रवण गुरु संघाय
नमो मैत्री सर्व धर्म संघाय

महा मैत्रीय मार्ग का अनुसरण करके मार्ग गुरु, गुरु मार्ग होते हुए भगवान मार्ग तक के असंख्य भाव दर्शन मे लीन रहकर समस्त प्राणी-लोक महा बोध का अमृत पान करें एवं महा मैत्रेय गुरु ओर मार्ग का लोक पर सदा आशीष बना रहे।

जैसे असंख्य तारे दिखाई देने पर भी आकाश एक ही है, संसार मे दिखने वाले समस्त धर्म ओर मार्ग का मूल स्त्रोत अन्तत: एक ही है। यह है बोध। लोक के विभिन्न काल खण्ड मे बोद्ध हुए या बोद्ध प्राप्त हुए गुरुओं से समय अनुकूल लोक कल्याण के निमित्त प्रतिपादित मार्ग वर्तमान क्षण मे विविध धर्म दर्शन मार्ग ओर संस्कृति के रंग मे रंगे हुए है। धर्म ओर मार्ग के नाम पर धीरे धीरे सत्य तत्व से विमुख होकर सही गलत पाप धर्म गुरु ओर मार्ग न पहचान सकने व न चाहते हुए भी अनायास ही मनुष्य को अन्धकारमय तत्व-हीन दिशा की ओर जाते हुए मैं देख रहा हूं।

पूर्ववत एक भाव होकर बोद्ध प्राप्त करने वाले बुद्ध केवल मार्ग इंगित कराने वाले मार्ग-गुरु है, तथापी वर्तमान क्षण मे पूर्ववत बुद्ध के गुरु नही है जैसे भ्रम लोक मे होकर भी इस मार्ग-गुरु के गुरु कौन है जैसे प्रश्न ओर वास्तविकता यथेष्ट ही है। अस्तित्व मे आसीन अनेकों भाव गुरु मार्ग अब भी लोक मे रहस्य ही हैं। समय की अत्यान्तिकता अनुरुप गुरु मार्ग दर्शन करा रहा हूं।

समस्त गुरुओं का एक ही मार्ग होते हुए भी अपना अपना शासन ओर स्थान होता है, तथा शासन अनुरुप फल प्राप्ति होती है। गुरु मार्ग वो मार्ग है जिस मार्ग मे समस्त लोक प्राणी ओर वनस्पति मैत्री मार्ग का अनुसरण करके मुक्ति ओर मोक्ष प्राप्त करते हैं। मानव लोक मे मनुष्य स्वतन्त्र है, धर्म के मार्ग मे लीन हो या पाप चर्या मे जीवन व्यतित करे। इस लोक का अर्थ ही धर्म ओर पाप को अलग अलग करके पहचानना है। पर मनुष्य के खुद से किये अच्छे बुरे कर्म अनुरुप फल सुनिश्चित हैं। युगों पश्चात लोक मे गुरु मार्ग का अवतरण हुआ है, समझदारी अहिंसा दया करुणा प्रेम तथा मैत्री भाव के रस से व्याकुल-लोक को तृप्त करके मैत्री के शासन को स्थापित करने के निमित्त।

पर सर्वज्ञान की भावना रखने वाला मनुष्य अहंकारवश वर्तमान इस गुरु क्षण का सद् उपयोग नहीँ कर पा रहा। एक क्षण आत्मा को साक्षी रखकर मानव-कुल भावना करे कि गुरु की यह तपस चर्या क्यों? अन्तत: केवल लोक प्राणी ओर वनस्पती के मुक्ति ओर मोक्ष के निमित तो तथापी है। कोई गुरू से अन्य संसारिक वस्तु के लाभ जैसी आशा रखे है पर गुरु के पास दे सकने मात्र धर्म मार्ग मुक्ति ओर मोक्ष हैं। पर विडंबना देखिए अनादी काल से संक्रमित मनुष्य की मनोवृत्ति बदले मे गुरु को देती है आरोप अविश्वास हिंसा बाधा अड़चना।

इस मानव कुल के समाज ओर व्यवस्था के साथ साथ समस्त लोक को धर्म ओर मार्ग की आवश्यकता पड़ती है, नाकी धर्म को। मनुष्य ये सत्य बोध करें एवं मैत्री भाव तत्व की खोज मे जीवन यापन करें। सत्य मार्ग का लोक व्यापी दर्शन कराने के निमित्त आने वाले दिनो मे गुरु भ्रमण भी होना ही है।

सर्व मैत्री मंगलम
अस्तु तथास्तु।।

English

Patharkot Speech by Maha Sambodhi Dharma Sangha Gurujiu (April 9, 2013)

“Dharma Sangha
Bodhi Shrawan Guru Sanghaya
Namo Maitri Sarva Dharma Sanghaya!

May all the living beings of the Loka taste the nectar of Great Knowledge (Maha Bodhh) by following Maha Maitri Dharma, remaining engrossed in innumerable Bhaav Darshan (Guidance on different aspects of Dharma) of ‘Guru Marga’, ‘Marga Guru’ and Bhaav Darshan up to ‘Bhagwan Marga’, and may the Loka always enjoy refuge and blessings of Maitriya Guru and Marga!

As the sky is same even if there are innumerable stars, in the same way the original source of all Dharmas and Margas (Spiritual Paths) after all is one. This has been learnt/known. The Paths propounded by Gurus who gained Knowledge Themselves or received Knowledge (from other Gurus) in different time periods for the overall welfare of the Loka appropriate to the time are coloured at present in various Dharma philosophies and cultures. I am seeing the human beings, even unwillingly, going towards a dark Tattwa-less (where there is no Truth) direction just like that for not being able to recognize right-wrong, Dharma-adharma, sin, Guru and Marga (Path) because of their drifting slowly away from the Satya Dharma Tattwa and Marga.

Buddha Who in the past attained spiritual Knowledge (Boddha), sticking to single-minded Bhaav, was a “Marga Guru” only to indicate towards the Path (to follow). Even though at present there is a misconception that this “Marga Guru” did not have a Guru, yet the reality of this question Who His Guru was remains exactly the same. Many Gurus, Margas and Aspects in existence are still a mystery to the Loka. In accordance with the extreme need of the time, I am providing ‘Guru Marga’ Darshan (Guidance).

Even though all the Gurus have the same Path, yet They have Their own order (Shashan) and place, and in accordance with the order (Shashan) fruits are received. Guru Marga’ is that Path following which all living beings of the world and vegetation attain Mukti and Moksha. Humans in the Loka are free whether to absorb themselves in Dharma Path or spend their life in routine sinful actions (Paapcharya). The meaning of this world in itself is to be able to recognize Dharma and adharma separately. But what type of fruits would a human reap is ensured in accordance with good or bad karma.

Guru-Marga has descended in the Loka after many Yugas to establish Maitri Shashan (Order) by gratifying this restless world with the sap of right sense, non violence, compassion, love and Maitri Bhaav (sense of Loving Kindness). But the human considering himself/herself omniscient is not able to take benefit from this present Guru moment due to his/her ego.

Think just for a moment through your honest Atma what the purpose of Guru’s Tapasya-charya (Tapasya routine) is. Eventually, it is only for the Mukti and Moksha of all the living beings and vegetation. Some people are keeping expectations to get some worldly material benefit from Guru but Guru can give Dharma Path, Mukti and Moksha only.

But see the irony! The thoughts and intentions of human beings corrupted for a very long time repay Guru with accusations, disbelief, violence, hurdles. It is the society of whole human family and their arrangement along with all the Loka that needs Dharma and Marga (Spiritual Path), not vice versa. May humans realize this Truth and spend their life in the pursuit of Maitri Bhaav Tattwa (Loving Kindness)! In the coming days, a tour all over the world by Guru to show Satya Marga (Path of Truth) will also surely take place.

Sarva Maitri Mangalam!
Astu Tatha-astu!”

(Tattwa in physical terms means elements and Tattwa in spiritual terms means Truth, essence, or something which has been or should be fully attained through spiritual gains. Thus, the meaning of Tattwa in a sentence has to be contextually understood)

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Shuddha Ahaar (Clean Pure Diet)

Vivekasheel (Discerning/who can judge right and wrong) human beings must feel ashamed of their acts of hatred. On the one hand, they speak the language of Maitri, kindness, compassion and love, and on the other they fulfill their selfish motives by killing Abodh (who do not understand much), innocent and Agyani (having no Dharma Knowledge) living beings. Is it right? Is there any feeling of Maitriful kindness, compassion, sensibility, love and peace in such actions? Isn't it absolutely the attitude of an animal and a Rakshasha (Devil/Demon)? What distinction have we kept between us humans and those violent animals by indulging in such non-Maitriful animal-like behaviour. Do try to know, even just for a moment, what the reality is. In this way, we actually are destroying our own identity, Maan-Maryada (dignity and binding ethics) and our human civilization. The reality is that a human being is not an Agyani (having no Dharma Knowledge) like those violent animals at all. Why should then we do the evil Karmas while being equipped with such a knowledge? We think and tell others that no one should impinge upon our right to eat. But when did we ever think of the rights of those animals, as to what their rights are. In fact, all other living beings have as equal right to live as we do. There is no difference. Only difference lies in the behaviour, attributes, nature and appearance which they have got in accordance with their Karma. Take into consideration for a moment the nature and behaviour of a lion. What type it possesses. Everyone in the world does know the nature of a lion. It certainly does not have the Gyan that it should not kill others, that it should not eat blood and meat. It's not possible because it is in its nature and attributes which make it kill others mercilessly and feed on the blood and meat. It can not survive without meat even. This behaviour of the lion has been gained by it as a result of its Karma. But there is earth and sky difference between the animals and humans due to the Karma fruits received by humans. There can't be a comparison between Vivekasheel humans and Agyani animals. Never do the humans have that kind of nature and attributes that s/he would have to die if the flesh and blood were not consumed. Does our survival depend on those animals? We humans do not have any right to kill others and torment them. We humans rather survive by feeding on pure Shakahari (food taken from plants and trees) food like vegetables, grains and fruits which Gurus have provided by creating them. We can survive by consuming them, not by taking away life of others. Even while having attained a human birth, if we adopt attributes and nature of animals in such ways as an Agyani, then we don't even get a birth as an animal being but instead get a life in hell. In this way, we are destroying this priceless life wastefully. Dharma, Niti (Codes/Tenets) and Shashan (Regime/Order) of Parmatma Bhagwan Gurus are not such that would harm others. They are only to emancipate all living beings through 'Maitri Feeling for All' by giving equal treatment to everyone.

Those who think that by doing Paap (Sin) one accumulates Dharma, those who think that their wishes are granted or obstacles get removed if they sacrifice animals, those who think offering blood and meat pleases Devi-Devatas, should introspect that if those were real Bhagwans, would they want their own child-like animals be sacrificed? They never want that the innocent living beings whom They have created Themseves should ever be killed. Would the survival of the world be possible, if They were of such opposite nature. Would there be any possibility of the existence of kindness, compassion and love? In this way, we humans are committing a grave crime. How can anyone be termed as Bhagwan or Devi-Devata if s/he wants the blood of the living beings. They can not be Bhagwan, and are not even bringing any benefits for us. This is absolutely a Rakshasha's (Demon/Devil's) nature, then how can they do our Kalyan (Dharma Benefit)? Everyone knows the nature of a Rakshasha. The reality is humans kill other living beings to meet their own selfish motives alone. The Chetansheel (Conscious) human beings punish an Abodh (who do not understand much) living being, who happens to be happily lost in the feeling of surrender, causing his/her death. Why do humans, who are considered as one of the best living beings, take diets which harm others and self. Take Shuddha diet renouncing the diets which harm others and self, and see and know all other living beings equal to yourself. If someone indulges in such harmful ways, it is absolutely not in favor of him/her. It is an act of complete destruction. Not only it causes self destruction, but this sin also leads to destruction of our own children. Eventually, Atma gets stuck in Narkiya Kunda (Hell) from where there is no Mukti ever. The Atmas who accept such sacrifices are Pret-Atmas and Rakshasha who can never benefit anyone, are there only for a very short time. Those who try to achieve something by pleasing them, get the birth in the same Juni (Species), and they in the end have no other options left but suffer.

शुद्ध आहार

विवेकशील प्राणी कहलाने वाले मनुष्य को जरूर अपने घृणित कार्यों पर लज्जित होना ही चाहिए। एक तरफ मैत्री, दया, करुणा और प्रेम की भाषा बोलने वाले, दूसरी तरफ उनके द्वारा उन अबोध, निर्दोष और अज्ञानी प्राणीयों की हत्या करके अपनी स्वार्थ पूर्ति करना क्या उचित है? क्या वहाँ सर्व मैत्री भावपूर्ण दया, करुणा, समझदारी, प्रेम ओर शान्ति का भाव है? क्या यह पूर्ण रूप में एक दानव (जनावर) व राक्षस का क्रूर स्वभाव नहीं है? ऐसे अमैत्री पूर्ण दानवीय आचरण से हमारे और हिंसात्मक उन जीव जन्तुओं के बीच में क्या फरक रह गया? एक क्षण के लिए ही सही पर सब इस पर सोचो तो, वास्तविकता क्या है? ऐसे हम अपनी पहचान, मान मर्यादा ओर मानविय सभ्यता को नष्ट कर रहें हैं। वास्तव में मनुष्य उन हिंसात्मक जीव जन्तु जैसा अज्ञानी तो बिल्कुल नहीं हैं। ऐसे जान-बुझकर भी क्यों हम दुष्ट कर्म कर रहे हैं तब? हम सोचते हैं और कहते हैं किसी मनुष्य को हमारे खाना पाने के अधिकार का हनन नहीं करना चाहिए। पर हमने कब उक्त प्राणीयों के बारे में सोचा कि उन प्राणीयों के हक ओर अधिकार क्या हैं? वास्तव में इस संसार में जितना हमारा बचे रहने का अधिकार है उतना ही हक ओर अधिकार सम्पूर्ण प्राणीयों का भी है। कोई फरक नहीं है। मात्र अपने कर्म अनुसार प्राप्त हुए व्यवहार, गुण, स्वभाव और स्वरूप में मात्र भिन्नता हैं। एक क्षण के लिए ऐसे दानवों में (पशु प्राणीयों में) हिंसात्मक जीवों में एक बाघ का स्वभाव ओर व्यवहार को लेकर देखो। क्या कैसा है? अवश्य ही संसार में प्रत्येक मनुष्य को पता ही है कि बाघ का स्वभाव कैसा होता है। उस में पक्का ही ऐसे किस्म का ज्ञान नहीं हैं कि ओरों की हत्या नहीं करनी चाहिए, रक्त और मांस नहीं खाना चाहिए। होंगी भी कैसे, क्योंकि वह तो उसका स्वभाव ओर गुण है कि ओरों की क्रुरता पूर्वक हत्या करके रक्त ओर मास खाना है। वह बिना मांस के बच भी नहीं सकता। बाघ का वह कर्म अनुसार पाया गया एक फल है। पर हम मानवों द्वारा प्राप्त किए कर्म के फल वैसे ना होने से आकाश और जमीन के बीच जितना अन्तर है उतना ही हमारे और दानवों के बीच में फरक है। कहाँ विवेकशिल मनुष्य और कहाँ अज्ञानी दानव (पशुप्राणी)। मनुष्य के वैसे दानविय गुण और स्वभाव तो पक्का नहीं होते कि रक्त और मांस न खाए तो वह बच नहीं सकता। क्या हमारे प्राण उन प्राणीयों पर आधारित हैं? संसार में हम मानवों को कोई अधिकार नहीं है कि ओरों की हत्या करे ओर प्राणीयों को दुःख दें। हम पुण्यवान मनुष्यों के प्राण तो शुद्ध शाकाहारी सेवन करने में है। जैसे सागपात, अन्न ओर फलफूल हैं जिनको गुरूओं ने सृष्टि करके दिया है। हम इनको खाकर जिन्दा रह सकते हैं। ओरों के प्राण लेकर नहीं। यदि हम मानव होकर भी ऐसे इस जन्म में अज्ञानी बनकर दानविय गुण ओर स्वभाव जैसे आचरण लेकर व्यवहार करते हैं तो मृत्यु पश्चात हम दानवों में नहीं नारकीय जीवन प्राप्त करते हैं। ऐसे हम अपने अमूल्य जीवन को व्यर्थ ही नष्ट कर रहें हैं। परमात्मा भगवान गुरूओं के धर्म नीति ओर शासन यह नहीं हैं कि ओरों को असर पहुंचाऐं। वे तो केवल मात्र सभी प्राणीयो से समान व्यवहार करके सर्व मैत्री भाव द्वारा सभी का उद्धार करना है।

'पाप करने से धर्म होता है' ऐसी मान्यता रखने वाले जैसे कि बली चढाकर मनोकामना पूरी होती है ओर विघ्नबाधाऐं हटती हैं, रक्त और मांस चढाने से देवी-देवता खुश होते हैं और धर्म पूरा होता है ऐसी मान्यता रखने वाले, क्या वे वास्तव में ही यदि भगवान हों तो क्या अपने ही पुत्र समान निर्दोष प्राणीयों की बलि चाहेंगे? खुद ही सृष्टि सिद्ध करके दिए प्राणीयों की हत्या वे कभी भी नहीं चाहते। यदि वे इसके विपरित होते तो क्या यह संसार रह पाता? क्या वहाँ दया, करुणा, प्रेम रहता? ऐसे हम मनुष्य घोर अपराध कर रहें हैं। यदि भगवान प्राणीयों का रक्त चाहते हैं तो वे कैसे भगवान या देवी देवता हो सकते हैं? भगवान हो ही नहीं सकते ओर हमारे हित कार्य करने के पक्ष में भी नहीं होते। यह पूर्ण रूप से राक्षस स्वभाव है फिर कैसे हमारा कल्याण कर सकते हैं? सब को पता है राक्षस का स्वभाव कैसा होता है। सत्य यह है कि मनुष्य अपने स्वार्थ भाव की पूर्ती के निमित्त मात्र प्राणीयों की हत्या करता है। एक अबोध प्राणी जो प्राण के निमित्त हंसते हंसते समर्पण भाव में विलीन होता है वे चेतनशील मानव उसे मृत्यु के रूप में दण्डित करते हैं। अपने और ओरों का अनिष्ट करने वाले आहार सर्वश्रेष्ठ प्राणी मे गिने जाने वाले मनुष्य क्यों करते हैं? अपने ओर ओरों का अनिष्ट करने वाले आहार त्याग कर शुद्ध आहार करो ओर सर्व प्राणीयों को अपनी तरह देखो ओर बोध करो। यदि कोई ऐसे अनिष्ट कार्य करता है तो बिल्कुल ही अपने हित में नहीं है। यह पूर्ण विनाश कार्य है। स्वयं तो नष्ट हुए ही हुए इस पाप के कारण अपने सगी संतानें भी नष्ट होती जाती हैं। अन्ततः सदा आत्मा नारकीय कुण्ड में फस कर रह जाती है जहाँ से कभी भी मुक्ति नहीं है। ऐसे प्राणीयों की बलि स्वीकार करने वाली आत्माऐं तो मात्र प्रेत आत्माऐं ओर राक्षस होती हैं जो किसी का भला नहीं करती। क्षणिक समय मात्र होती हैं। इनको मानकर अपना कार्य सिद्ध बनाने व कोशिश करने वाले मानव अन्ततः इसी प्रेत आत्मा ओर राक्षस की जुनि पाकर उनके पास अन्त में दुःख भोगने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं होता।

शुद्ध आहार

विवेकशील प्राणी भन्ने मनुस्यलाई पक्कै पनि आफ्नो घृणित कार्यहरूमा लाज एवम् संकोच हुनु पर्ने हो। जहाँ मैत्री, दया, करुणा र प्रेमको भाषा बोल्नेहरूले ति अवोध, निर्दोष र अज्ञानी प्राणीको हत्या गरेर आफ्नो स्वार्थ पूर्ति गर्नु उचित छ ? के त्यहाँ सर्व मैत्री भावपूर्ण दया, करुणा, समझदारी, प्रेम र शान्तिको भाव छ ? के यो पूर्ण रूपमा एक दानव (जनावर) वा राक्षसको क्रुरता स्वभाव होइन र ? यस्तो अमैत्री पूर्ण दानवीय आचरणले हामी र हिंसात्मक ति जीव जन्तु विचमा के फरक रह्यो र ? एक क्षण भएपनि सबैले यसलाई सोच्नुस त, वास्तविकता के रहेछ ? यसरी हामीले आफ्नै पहिचान, मान मर्यादा र मानविय सभ्यतालाई नष्ट गरी रहेका छौं। वास्तवमा मनुष्य ति हिंसात्मक जीव जन्तु जस्तो अज्ञानी त पक्कै पनि होइन। यसरी जानी-बुझीकन पनि किन हामी दुष्ट कर्म गरि रहेका छौं त ? सोच्दा वा भन्दा हुन् कोही मनुष्यले हाम्रो खाना पाउने अधिकारको हनन हुँदैन। तर हामीले कहिले उक्त प्राणीहरूको बारेमा सोचेका छौं ? ति प्राणीहरूको हक र अधिकार के हो भनेर ? वास्तवमा यस संसारमा हाम्रो जत्ति बाँच्ने अधिकार छ। त्यत्तिकै हक र अधिकार सम्पूर्ण प्राणीको पनि छ। केही फरक छैन। मात्र आफ्नो कर्म अनुसारले प्राप्त भएको व्यवहार, गुण, स्वभाव र स्वरूपमा मात्र फरक छ। एकै छिन त्यस्ता दानव मध्यको हिंसात्मक जीवमा एक बाँधको स्वभाव र व्यवहारलाई लिएर हेरौं। के कस्तो छ ? अवश्य नै संसारमा प्रत्येक मनुष्यलाई थाहाँ नै छ। बाँघको स्वभाव कस्तो हुनँछ भनेर। पक्कै पनि उसमा त्यस किसिमको ज्ञान छैन अरुको हत्या गर्नु हुँदैन भनेर, रगत र मासु खानु हुँदैन भन्ने कुरा। होस पनि कसरी, किनकी त्यो त उसको स्वभाव र गुण हो। जुन अरुको क्रुरता पूर्वक हत्या गरेर रगत र मासु खानुमा छ। ऊ मासु विना बाँच्न पनि सक्दैन। बाँघको त्यो कर्म अनुसार पाएको एक फल हो। तर हामी मानवले प्राप्त गरेको कर्मको फल त्यस्तो नभएर आकाश र जमीन बिचमा जत्ति अन्तर छ। त्यत्तिकै रूपमा हामी र दानव बिचमा फरक छ। कहाँको विवेकशिल मनुष्य र कहाँको अज्ञानी दानव। मनुष्यको त्यस्तो दानविय गुण र स्वभाव पक्कै पनि होइन। रगत र मासु नखाइ बाच्न नसक्ने। के हाम्रो प्राण ति प्राणीहरूमा आधारित छ त ? संसारमा हामी मानवलाई कुनै अधिकार छैन अरुको हत्या गर्ने र प्राणीलाई दुःख दिने। हामी पुण्यवान मनुष्यहरूको प्राण ति शुद्ध शाकाहारी सेवन गर्नुमा छ। जस्तै सागपात, अन्न र फलफूल हुन्। जुन गुरूहरूले सृष्टि गरेर दिनु भएको छ। हामी यसैलाई खाएर बँच्न सक्छौं। अरुको प्राण लिएर होइन। हामी मानव भएर पनि यसरी यही जन्ममा अज्ञानता बनेर दानविय गुण र स्वभाव झैं आचरण लिएर व्यवहार गर्छौं भने जन् मृत्यु पश्चात त हामी दानवमा होइन कि नारकीय जीवन प्राप्त गर्नेछ। यसरी हामीले आफ्नो अमूल्य जीवनलाई व्यर्थै वर्बाद गरि रहेका छौं। परमात्मा भगवान गुरूहरूको धर्म नीति र शासन त्यो होइन। अरुलाई असर पुर्‍याउने। केवल मात्र सर्व प्राणीलाई समान व्यवहार गरेर, सर्व मैत्री भावद्वारा सवैको उद्धार गर्ने हो।

'पाप गरेर धर्म हुन्छ' भन्ने मान्यता राख्नेहरू, जस्तो कि बली चढाएर मनोकामना पूरा हुन्छ र विघ्नबाधाहरू हट्न भन्नेहरू, रगत र मासु चढाएर देवी-देउता खुसी हुन्छन् र धर्म पूरा हुन्छ भन्ने मान्यता राख्नेहरू, के त्याहाँ वास्तवमै यदि भगवान भई दिएको भए देखि आफ्नै पुत्र समान निर्दोश प्राणीहरूको बलि चाहनु हुन्छ ? आफैले सृष्टि सिद्ध गराइ दिनु भएको प्राणीहरूको हत्या उहाँहरूले कहिल्यै पनि चाहनु हुन्न। यदि उहाँहरू यसको विपरित हुनु भएको भए के यो संसार रहन्थ्यो ? के त्यहाँ दया, करुणा, माया भन्ने रहन्थ्यो ? यसरी हामी मनुष्यले घोर अपराध गर्दै छौं। यदि भगवानले प्राणीको रगत चाहन्छ भने त्यो कसरी भगवान वा देवी देऊता हुन सक्छ ? भगवान हुनै सक्दैन र हाम्रो हित कार्य गर्ने पक्षमा पनि हुँदैन। यो पूर्ण रूपमा राक्षस स्वभाव हो र कसरी हाम्रो कल्याण गर्न सक्छ ? सबैलाई थाहाँ छ राक्षसको स्वभाव कस्तो हुन्छ भनेर। सत्यता यो हो कि मनुष्यहरू आफ्नो स्वार्थ भावपूर्तिको निमित्त मात्र प्राणीको हत्या गर्छन्। एक अवोध प्राणी प्राणको निमित्त हाँसी-हाँसी समर्पण भावमा विलीन हुँदै मृत्युको रूपमा ति चेतनशिल मानवले दण्ड दिन्छन्। आफू र अरुको अनिष्ट गर्ने आहार सर्वश्रेष्ठ प्राणीमा गनिने मनुष्यले किन गर्दैछन् ? आफू र अरूको अनिष्ट गर्ने आहारहरू त्यागी सुद्ध आहार गर्नु र सर्व प्राणीहरूलाई आफू सरह हेरौं र बोध गरौं। यदि कसैले यसरी यस्ता अनिष्ट कार्यहरू गर्दैछ भने त्यो विलकुलै आफ्नो हितमा छैन। यो पूर्न विनाश कार्य हो। अफू त नष्ट भयो-भयो यसको पापले गर्दा आफ्नो साखा-सन्तानहरूपनि नष्ट हुँदै जानेछ। अन्ततः सदा आत्माले नारकीय कुण्डमा विताउनु पर्ने हुन्छ। जहाँबाट कहिल्यै मुक्त छैन। यसरी प्राणीको बलि स्वीकार्ने आत्माहरू त मात्र प्रेत आत्माहरू र राक्षसहरू हुन्। जसले कसैलाई राम्रो गर्दैन। क्षणिकको लागी मात्र हुँनेछ। यस्तालाई मानेर आफ्नो कार्य सिद्ध बनाउन खोज्ने मानवहरू अन्ततः यसै प्रेत आत्मा र राक्षसको जुनि पाएर अनन्त दुःख भोग्नु सिवाय अरु विकल्प कुनै छैन।